तालाब का पानी सैनिकों के ख़ून से लाल हो गया
फ़ीरोज़पुर छावनी में एक लाल पत्थर का स्मारक बना हुआ है जिस पर लिखा हुआ है, “बर्की, 10 सितंबर, 1965.” उसके बगल में पाकिस्तान का एक पैटन टैंक खड़ा है और एक मील का पत्थर भी लगा है जिस पर लिखा हुआ है, लाहौर, 15 मील.
6 सितंबर, 1965 को 4 सिख के जवानों को पाकिस्तान की सीमा की तरफ़ बढ़ने के लिए कहा गया. रात होते होते वो खालड़ा पहुंच गए. खालड़ा और बर्की के बीच में एक गाँव पड़ता है हुडियारा. इसी नाम से वहाँ पर एक नाला भी है.
उस दिन 48 इंफ़ैंट्री ब्रिगेड हुडियारा तो पहुंच गई लेकिन पाकिस्तान की तरफ़ से आ रही ज़बरदस्त गोलाबारी ने उन्हें नाला नहीं पार करने दिया. योजना बनाई गई कि रात के अँधेरे में पाकिस्तानी सेना पर हमला बोला जाए, लेकिन ये योजना तब धरी की धरी रह गई जब पाकिस्तानी सैनिकों ने हुडियारा पुल उड़ा कर पुल के पार पोज़ीशन ले ली.
पाकिस्तानियों ने अपना ही पुल उड़ाया
कर्नल मनमोहन सिंह मानते हैं कि पाकिस्तानियों के इस कदम से भारतीय टैंक वहीं के वहीं खड़े रह गए. वो कहते हैं, “वैसे तो नाला सिर्फ़ डेढ़ फ़ीट गहरा था लेकिन चूंकि उसकी चौड़ाई पचास फ़ीट थी, इसलिए उसमें टैंक उतारने का सवाल ही नहीं उठता था.”
पाकिस्तानी गोलाबारी के बीच 4 सिख की दो कंपनियाँ पुल को दोबारा बनाने में जुटी रहीं. शाम तक पुल बन कर तैयार भी हो गया लेकिन जब उसकी जांच की गई तो पता चला कि टैंक के गुज़रने के लिए वो जगह अब भी काफ़ी नहीं है.
लेकिन सेंट्रल इंडिया हार्स के कर्नल जोशी ने जोखिम उठाते हुए सबसे पहले अपने टैंक को बनाए गए पुल के ऊपर से ले जाने का फ़ैसला किया. उनके पीछे-पीछे और टैंक भी गए और 8 सितंबर की सुबह होते होते सारे टैंक हुडियारा नाले के दूसरी तरफ़ थे.
विमानभेदी तोपों का इस्तेमाल
लेकिन पाकिस्तान की तरफ़ से ज़बरदस्त गोलाबारी की जा रही थी. कर्नल मनमोहन सिंह याद करते हैं, “सैनिक भाषा में हम इसे कार्पेट बॉम्बिंग कहते हैं. उस इलाके के एक एक इंच पर उनके गोले गिर रहे थे. अच्छी बात ये रही कि रात में ही हमने ट्रेंच खोद लिए थे. हम उनके अंदर चले गए. हमने अपने सिर नीचे रखे और गोले हमारे ऊपर से जाते रहे.”