हां; मैं एक पत्रकार हूँ और अब कठुआ जैसी घटनाएं मुझे भी डराने लगी हैं !

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न्यूज़ डेस्क– क्या खबरें चुन – चुनकर लाने वाली एक लड़की भी कभी डर सकती है? लोग इसका जवाब शायद ‘न’ में ही देंगे। समाज में घटित होने वाली घटनाओं को सबके सामने खबरों के रूप में लाने वाली एक पत्रकार ;

खासकर एक महिला पत्रकार ; जो एक लड़की होकर भी इस काम को अंजाम देती है ; उसका इस तरह से डर के साये में जीना अपने आप में एक बड़ा सवाल उठाता है। 

पत्रकारिता ; एक ऐसा क्षेत्र जहां व्यक्ति की निडरता की परख हो जाती है। यहां जुझारू महिलाऐं भी बिना किसी डर के रिपोर्टिंग का काम करती हैं। लेकिन कभी – कभी ऐसी घटनाएं सामने आ जाती हैं कि वो इन बेख़ौफ़ महिलाओं को भी एक बार सोंचने पर मजबूर कर देती हैं। 

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जम्मू – कश्मीर के कठुआ जिले में आठ साल की मासूम से गैंगरेप की घटना वाकई में दिल दहलाने वाली है। चार्जशीट के मुताबिक़ दो समुदायों के बीच के विरोध के चलते इस बच्ची से यह शर्मनाक घटना हुयी थी। हद तो यह थी कि सबसे ज्यादा पवित्र स्थल ‘ मंदिर’ में यह घटना अंजाम दी गयी थी और इसमें अन्य लोगों के साथ पूज्य्नीय माने जाने वाले एक पंडित और लोगों की सुरक्षा का ठेका लेने वाली खाकी भी शामिल थी। मेरठ तक से दरिंदों ने आकर अपनी हवस की भूख शांत की थी और अंत में एक सप्ताह बाद बेहद दर्दनाक तरीके से उसे मौत की नींद सुला दिया।

मुझे पिछले साल की एक घटना याद आ रही है। जब मेरे पास एक खबर आयी कि लखनऊ के अंतर्गत मड़ियांव थाना क्षेत्र की एक 7 साल की मासूम के साथ बलात्कार हुआ है। उसका मेडिकल राजधानी के एक प्रसिद्ध अस्पताल में होना था। मैं भी मौके पर पहुंची। वहां जाकर मेरी आँखें तब फ़टी रह गईं; जब मैंने देखा कि वो सात साल की बच्ची अपनी माँ के पल्लू के पीछे छिपकर बैठी थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसने ही कोई गलती की थी। उसके साथ क्या हुआ था , उसे खुद भी नहीं पता था। निर्भया के बाद आसिफ़ा जैसी न जाने कितनी घटनाएं घटी होंगी, कुछ घटनाएं चर्चाओं में रही तो कुछ ने ख़ामोशी से दम तोड़ दिया। ऐसी न जाने कितनी चीखों ने जंगल में लकड़ी बीनते समय, बकरियां चराते समय , रात में अकेले यात्रा करते समय अपना दम तोड़ दिया होगा।  

मैं भी पत्रकारिता जगत में निर्भीक होकर अपना कार्य करती थी। मैं बेखौफ़ होकर इधर-उधर जाने से कभी डरती नहीं थी। लेकिन इस तरह की घटनाएं अब मुझे भी डराने लगी हैं। पहले मैं बिना डरे हर तरह के लोगों से निपट लेती थी। कोई मुझे घूरता था तो मई भी उसे लगातार घूरकर उसकी नजरों को शर्म से झुकने पर मजबूर कर देती थी। किसी भी तरह के भद्दे कमेंट का मैं तगड़ा जवाब देती थी। घर – परिवार के लोग कहते भी कि-‘इस तरह से सबसे पंगे मत लिया करो। बर्दाश्त करना सीखो। कभी कुछ गलत हो गया तो…..।’ तब मैं उनकी बातों को नज़रअंदाज़ कर देती थी। लेकिन अब कठुआ में महज दो समुदायों के आपसी विरोध में हुयी इस शर्मनाक घटना को देखकर मुझे अपने अभिभावकों की ये चिंता अब वाजिब लगने लगी है। सोंचती हूँ कि जब मैं इस क्षेत्र में रहकर एक खौफ के साये में जीने लगी हूँ तो सामान्य वर्ग की लड़कियां और उनका परिवार किस स्थिति में होगा ?   

—( श्वेता सिंह ) 

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