डॉक्टरों ने पेश की मिसाल, अपनों से बिछड़े मरीजों को देते हैं अपनापन

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लखनऊ– सरकारी अस्पतालों में लावारिस मरीजों को इलाज मिलना ही बड़ी बात है। इन हालात में केजीएमयू के न्यूरो सर्जरी विभाग के हेड प्रफेसर बीके ओझा की टीम दूसरे डॉक्टरों के लिए किसी मिसाल से कम नहीं। यह टीम यहां लाए जाने वाले लावारिस मरीजों के इलाज के साथ पूरी देखभाल करती है। यही नहीं, इलाज पूरा होने के बाद मरीज को घर पहुंचाने या वृद्धाश्रम में जगह दिलाने का भी इंतजाम करती है।

इसके लिए विभाग को कोई सरकारी मदद नहीं मिलती, बल्कि डॉक्टर और कर्मचारी अपनी जेब से यह रकम खर्च करते हैं। 

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लावारिस मरीजों की देखभाल करने वाली टीम में प्रफेसर बीके ओझा के साथ यहां के टेक्निशन अतुल उपाध्याय, सीनियर स्टाफ नर्स शशि राय और स्टाफ नर्स अजेश की काफी अहम भूमिका है। स्टाफ नर्स शशि घर के सदस्य की तरह मरीजों की देखभाल करती हैं, जबकि टेक्निशन अतुल और स्टाफ नर्स अजेश मरीजों के घर का पता लगाने में मदद करते हैं। विभाग में अब तक कई मरीजों का इलाज कर उन्हें घर पहुंचाया जा चुका है। 

हालिया मामला बाराबंकी में मिले एक बुजुर्ग लावारिस मरीज का है। मई में बाराबंकी पुलिस उसे ट्रॉमा सेंटर लाई। मरीज कोमा में था। उसे न्यूरो सर्जरी विभाग में भर्ती किया गया और देखभाल का जिम्मा एक सीनियर रेजिडेंट व नर्सों को सौंपा गया। दो महीने बाद मरीज कोमा से बाहर आया तो कुछ-कुछ बुदबुदाता रहता था। स्टाफ नर्स अजेश ने बताया कि वह मलयाली बोल रहा था। उसके बताए आधे-अधूरे पते पर और आसपास के चर्च में मरीज की फोटो भेजी गई तो उसकी पहचान हो गई। मरीज का एक बेटा अमेरिका में रहता है, लेकिन उसने आने से इनकार कर दिया। इस पर प्रफेसर ओझा ने केरल के नवजीवन ट्रस्ट से संपर्क किया। इसके बाद एक कर्मचारी लावारिस मरीज को वहां तक छोड़कर आया। 

लावारिस मरीज के इलाज और देखभाल में औसतन 18 से 25 हजार रुपये खर्च होते हैं, जो डॉक्टर और कर्मचारी खुद जुटाते हैं। प्रफेसर बीके ओझा ने बताया कि उन्हें लावारिस मरीजों की सेवा की प्रेरणा प्रफेसर एके महापात्रा से मिली। प्रफेसर महापात्रा एम्स में न्यूरो सर्जरी के एचओडी थे और एमसीएच करते हुए प्रो. ओझा उन्हीं की यूनिट में थे। अब तक 6 महीने में 16 मरीजों को घर पहुंचाया जा चूका है। 

 

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