यहां हुई थी आजादी की पहली जंग, 10 जून को फहराया था झंडा

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गोंडा: साल 1857 में शुरु हुआ आजादी का संघर्ष केवल शहर तक सीमित न रहकर गांव-गांव फैला था। इसमें अमीर, गरीब, किसान, मजदूर, हिन्दू, मुस्लिम सब ने मिलकर भाग लिया।

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अवध क्षेत्र का भी अहम योगदान रहा। मेरठ के बाद स्वाधीनता के लिए शुरू हुई जंग सबसे पहले अवध के गोंडा जिले में कर्नलगंज के सकरौरा छावनी से ही हुई थी। 10 जून को सकरौरा छावनी के सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल फूंक कर हिसामपुर तहसील को भी लूट लिया था। 12 जून 1857 को सकरौरा के सिपाहियों ने बहरामघाट पर तीन अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। 10 जून 1857 को पूरे अवध में आजादी का झंडा फहराने लगा था और जब दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे प्रमुख केन्द्रों का पतन हो गया तो भी अवध क्षेत्र में क्रांतिकारी लड़ाई जारी रखे थे।

सकरौरा से उठी थी पहले विद्रोह की चिंगारी-

जनरल आउटम ने 07 फरवरी 1856 को अवध पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन घोषित किया। बहराइच को केन्द्र बनाकर कम्पनी ने विंगफील्ड को यहां का आयुक्त नियुक्त किया गया। इसके बाद जब गोंडा को बहराइच से अलग करके जिले का स्वरूप प्रदान किया गया तो सकरौरा (वर्तमान कर्नलगंज कस्बे के निकट) में कमिश्नरी का मुख्यालय बनाया गया। इससे पहले सकरौरा नवाब वाजिद अली शाह के नाजिम राय सघन लाल की तहसील तथा शाही छावनी के रूप में प्रसिद्ध रहा। प्रथम स्वाधीनता संग्राम में दिल्ली और मेरठ में विद्रोह के बाद अवध क्षेत्र के गोंडा जिले के सकरौरा छावनी में सैनिकों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।

10 जून 1857 को सकरौरा छावनी के कुछ सिपाहियों ने हिसामपुर तहसील को लूट लिया। स्थिति भांपकर लेफ्टीनेंट क्लार्क और सहायक कमिश्नर जार्डन बहराइच की ओर भागे। कमिश्नर विंग फील्ड ने भागकर बलरामपुर में शरण ली। डिप्टी कमिश्नर सीडब्ल्यू कैलिफ के नेतृत्व में उप आयुक्त, लेफ्टिनेंट लेग बेली और जोर्डन अंग्रेज अफसर जब 12 जून को घाघरा नदी होकर लखनऊ जाने लगे तो विद्रोही सैनिकों ने उन्हें बहराइच के बहरामघाट (गणेशपुर) के पास मौत के घाट उतार दिया। तीनों को सकरौरा छावनी में ही दो गज़ ज़मीन देकर दफ़न कर दिया, उनकी आज भी ये क़ब्रें मौजूद हैं और हमारे पूर्वजों के उदारता की मिसाल बनी हुई हैं। तीन अफसरों के मारे जाने से पूरा गोंडा-बहराइच क्षेत्र स्वतंत्रता सेनानियों के नियंत्रण में आ गया। कर्नलगंज के सकरौरा मोहल्ले में सकरौरा छावनी का ध्वंसावशेष अभी भी स्वाधीनता आंदोलन की याद दिलाता है। नगर पालिका ने लगभग दो बीघे में इसे संरक्षित करते हुए पार्क के रुप में विकसित किया है।

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गोंडा नरेश ने राजपाट गंवाया, नहीं मानी हार-

अंग्रेजी शासन के खिलाफ गोंडा में बिगुल फूंकने वाले गोंडा नरेश महाराजा देवी बक्श सिंह की शौर्य गाथा आज भी लोगों में देश भक्ति की अलख जगा रही है। भले ही आजादी के लिए उन्होंने अनगिनत कष्ट झेले , राजपाट गंवाया, लेकिन उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश राज्य में अवध के विलय के बाद ब्वायलू को गोंडा और चार्ल्स विंगफील्ड बहराइच के डिप्टी कमिश्नर नियुक्त हुए तो उन्होंने महराजा देवी बख्श सिंह के पास सुलह का प्रस्ताव भेजा। लेकिन वे तैयार नहीं हुए और 1857 की क्रांति में गोंडा के राजा देवी बक्श सिंह ने आजादी की लड़ाई को नेतृत्व प्रदान किया था। उनके हजारों सैनिकों ने बेगम हजरत महल के सैनिकों का साथ दिया।

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राजा के आह्वान पर उत्तर में तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुंवरि ने एक बड़ी सेना गठित की। राजा देवी बख्श सिंह ने लमती के किले में अपना शिविर बनाया और उन्होंने बीस हजार सैनिकों की सेना तैयार की। अंग्रेज सेनापति रोक्राफ्ट के नेतृत्व में 05 मार्च 1858 को बेलवा पहुंची अंग्रेजों की सेना पर गोंडा के राजा देबी बख्श सिंह, मेंहदी हसन, चरदा के राजा के नेतृत्व में 14 हजार स्वतंत्र सैनिकों ने अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया।

भारी संख्या में सैनिकों के हताहत होेने के कारण राजा देबी बख्श सिंह को युद्ध बंद करना पड़ा। इसके बाद नवाबगंज के ऐतिहासिक मैदान लमती में भी अंग्रेजों व राजा की सेना के बीच युद्ध हुआ। राजा देवी सिंह बनकसिया कोट पहुंचे और यहां भी उन्होंने अपने बचे सैनिकों के साथ फिर लोहा लिया। आखिरकार राजा देवी बक्श सिंह अपने बचे सैनिकों के साथ नेपाल के दांग जिला चले गये, जहां बाद में बीमारी की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी।

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