दम तोड़ती भारतीय परंपराएं…

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 ( श्वेता सिंह )

“जहाँ से चली मैं..जहाँ को गई मैं 

शहर, गाँव, बस्ती..नदी, रेत, निर्जन,

हरे खेत, पोखर..झुलाती चली मैं।

झुमाती चली मैं!

हवा हूँ, हवा मै..बसंती हवा हूँ।”

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             हमारे देश में वैसे तो पर्व कम नहीं हैं। जब से पश्चिमी पर्व हमारी संस्कृति का हिस्सा बने हैं , तब से ऐसा लगता है जैसे हर रोज़ कोई न कोई पर्व मनाया जा रहा हो। अगर पर्व की बात करें तो बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। इस समय का समशीतोष्ण मौसम लोगों में एक नयी उमंग भर देता है।

क्यों होता है बसंत का पर्व –

              ऐसी मान्यता है की सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा जी अपनी सर्जन से संतुष्ट नहीं थे। विष्णु जी से सलाह लेकर ब्रम्हा ने अपने कमंडल से जल छिड़का और तभी एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का प्राकट्य हुआ , जिसके एक हाथ में वीणा  , दूसरा हाथ वर – मुद्रा में था और अन्य दोनों हाथों में पुस्तक व माला थी। ब्रम्हा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया।  जैसे ही देवी ने वीणा बजायी; पूरे संसार का मौन समाप्त हो गया।  तब ब्रम्हा जी ने उन्हें ‘वाणी की देवी- सरस्वती ‘ कहा। माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को माँ सरस्वती की उत्पत्ति हुयी थी।  अतः इस दिन को इनके जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।  सभी ऋतुओं में बसंत को राजा की उपाधि दी गयी है। इस अवसर पर चारों ओर पीली सरसों लहलहाने लगती है और मन ख़ुशी से झूम उठता है। बसंत ऋतु में शरद ऋतु की विदाई के साथ पेड़ – पौधों और लोगों में नए जीवन का संचार  हो जाता है।  जिस तरह से एक राजा अपनी प्रजा की सारी दिक्कतों को दूर  करके उन्हें खुश रखने का प्रयास करता है  ; उसी तरह बसंत भी लोगों को खुश होने का कारण देता है। इसीलिए इसे ‘ऋतुराज -बसंत’ कहा जाता है। पारम्परिक रूप से यह त्यौहार बच्चे की  शिक्षा के लिए शुभ  माना गया है।  आंध्र -प्रदेश में इसे विद्यारम्भ पर्व भी कहा जाता है। चूँकि माँ सरस्वती को विद्या की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है ; इसलिए इस दिन लोग अपने बच्चों को पहला शब्द लिखना और पढ़ना सिखाते हैं। इसलिए इस दिन  देवी सरस्वती की पूजा की जाती है।   

         बसंत पंचमी पर अनेकों जगह पतंग उड़ाकर आनंद मनाया जाता है। हालाँकि यह परंपरा सभी जगह नहीं है , लेकिन देश के कुछ हिस्सों ने इस परंपरा को अभी भी जिन्दा बनाए रखा है। बहुत पहले उत्तर भारत में इस सुहाने मौसम में बच्चे पतंग उड़ाते थे लेकिन पश्चिमीकरण ने इसे ख़त्म ही कर दिया है। भारत में ऐसी कई परम्पराएँ हैं; जो पश्चिम के प्रभाव के कारण अपना दम तोड़ चुकी हैं।  यदि आज के लोगों से पूँछा  जाये कि बसंत पंचमी के दिन क्या क्या होता है तो उनका जवाब यही होगा कि इस दिन विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा होती है आदि।  मगर हमारे बुजुर्ग इस पर्व का आनंद किस प्रकार उठाते थे यह शायद ही कोई बता पाए। भारत के सबसे बड़े पर्व होली की औपचारिक शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है। इस दिन लोग होलिका -दहन के लिए निश्चित स्थान पर लकड़ियां एकत्र करना शुरू कर देते हैं और एक – दूसरे को अबीर – गुलाल लगाते हैं।  लेकिन आज के परिदृश्य में लोग होली के लिए केवल लकड़ियां ही इकठ्ठा करना प्रारम्भ करते हैं ; अबीर -गुलाल तो सिर्फ होली  के लिए रखी जाती  है और तभी प्रयोग भी की जाती है। यह परंपरा केवल आज ब्रज में ही जिन्दा बची है। 

           प्रसंगवश 14 फरवरी को ही आने वाले वैलेंटाइन -डे की तैयारियां तो जनवरी के अंतिम सप्ताह से ही प्रारम्भ ही जाती हैं। वैलेंटाइन डे को अपने प्रिय को दिए जाने वाले बधाई – सन्देश और अन्य चीजो की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं ; लेकिन हमारे माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाये जाने वाले  भारतीय पर्व बसंत के आगमन की तैयारियां लोग शायद माघ मास के शुक्ल पक्ष के दुसरे या चौथे दिन से करते हैं। बसंत पंचमी के अवसर पर चारों ओर पीली सरसों लहलहाने लगती है और मानव मन ख़ुशी से झूम उठता है। मैं एक सवाल उठाना चाहती हूँ की इस उल्लास व नयी उमंग के पर्व को लेकर लोगों में इतनी उदासीनता क्यों होती है ? क्यों हम भारतीय परम्पराओं को नहीं बचा पा रहे ?

 

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