ऋतुराज बसंत की अगवानी को तैयार देशवासी, जगह – जगह हो रहे मांगलिक कार्य

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न्यूज़ डेस्क– परिवर्तन प्रकृति का नियम है और विकास के आगमन का संकेत है। हर्षोल्लास के आगमन का सन्देश देने वाले और ऋतु परिवर्तन का त्यौहार ही बसंत – पंचमी है। यह ऋतु अपने साथ कई परिवर्तन लेकर आती है। इस बार 22 जनवरी को इस त्यौहार का आगमन हो रहा है।

जिसके मद्देनज़र पूरे देश में बसंती छटा छा गयी है। पूरे देश में जगह – जगह हवन – पूजन के कार्यक्रम हो रहे हैं। खासकर सभी विद्यालयों में इस पर्व को लेकर बच्चों में ख़ासा उत्साह देखने को मिल रहा है। 

क्यों होता है बसंत का पर्व –

ऐसी मान्यता है की सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा जी अपनी सर्जन से संतुष्ट नहीं थे। विष्णु जी से सलाह लेकर ब्रम्हा ने अपने कमंडल से जल छिड़का और तभी एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का प्राकट्य हुआ , जिसके एक हाथ में वीणा , दूसरा हाथ वर – मुद्रा में था और अन्य दोनों हाथों में पुस्तक व माला थी। ब्रम्हा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया।  जैसे ही देवी ने वीणा बजायी; पूरे संसार का मौन समाप्त हो गया।  तब ब्रम्हा जी ने उन्हें ‘वाणी की देवी- सरस्वती ‘ कहा। माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को माँ सरस्वती की उत्पत्ति हुयी थी।  अतः इस दिन को इनके जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।  

ऋतुओं का राजा ‘बसंत’-

सभी ऋतुओं में बसंत को राजा की उपाधि दी गयी है। इस अवसर पर चारों ओर पीली सरसों लहलहाने लगती है और मन ख़ुशी से झूम उठता है। बसंत ऋतु में शरद ऋतु की विदाई के साथ पेड़ – पौधों और लोगों में नए जीवन का संचार  हो जाता है। जिस तरह से एक राजा अपनी प्रजा की सारी दिक्कतों को दूर  करके उन्हें खुश रखने का प्रयास करता है  ; उसी तरह बसंत भी लोगों को खुश होने का कारण देता है। इसीलिए इसे ‘ऋतुराज -बसंत’ कहा जाता है। 

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क्यों होती है माँ सरस्वती की पूजा –

पारम्परिक रूप से यह त्यौहार बच्चे की शिक्षा के लिए शुभ माना गया है।  आंध्र -प्रदेश में इसे विद्यारम्भ पर्व भी कहा जाता है। चूँकि माँ सरस्वती को विद्या की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है ; इसलिए इस दिन लोग अपने बच्चों को पहला शब्द लिखना और पढ़ना सिखाते हैं। इसलिए इस दिन  देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। 

बृज ने बचा रखी है ये परम्परा : 

होली शुरू होने में भले ही अभी 40 दिन का वक़्त हो, लेकिन बृज में अभी से ही होली की शुरुआत हो चुकी है। बसंत-पंचमी के दिन वृन्दावन के विश्वप्रसिद्ध बाँकेबिहारी मंदिर में भी जमकर गुलाल उड़ाया जाता है। परंपरा के अनुसार आज के दिन मंदिर में श्रृंगार आरती के बाद सबसे पहले मंदिर के सेवायत पुजारी भगवान बाँके बिहारी को गुलाल का टीका लगाकर होली के इस पर्व की विधिवत शुरुआत करते है और उसके बाद इस पल के साक्षी बने मंदिर प्रांगण में मौजूद श्रद्धालुओं पर सेवायत पुजारियों द्वारा जमकर बसंती गुलाल उड़ाया जाता है। मंदिर में होली की विधिवत शुरुआत होने के कुछ देर बाद ही प्रांगण में माहौल बेहद खुशनुमा हो जाता है और यहाँ सिर्फ गुलाल ही गुलाल नजर आता है। प्रांगण में मौजूद श्रद्धालू भी भगवान बाँकेबिहारी के साथ होली खेलने के इस पल का खूब आनंद उठाते है और एक-दूसरे पर भी जमकर गुलाल लगाते है। बसंत-पंचमी के दिन से ही मंदिरों में होली खेलने की शुरुआत होने के साथ ही बृज में होली का डाँढ़ा गाढ़ने की भी परम्परा रही है। इसीलिए आज ही के दिन यहाँ जगह-जगह पूजा-अर्चना करने के साथ होलिका बनाने की भी शुरूआत हो जाती है।    

 

रिपोर्ट- श्वेता सिंह , लखनऊ   

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