Children’s Day 2019ः जरूरत है बचपन को संवारने की….

मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1 करोड़ 80 बच्चे सड़कों पर रहते हैं और काम करते हैं।

न्यूज डेस्क — भारत में प्रत्येक वर्ष 14 नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। जो सपने चाचा नेहरू ने बच्चों के खुशहाल जीवन को लेकर देखें थे, वे आज कई धूमिल होते नजर आ रहे हैं। आज भी देश के करोड़ों बच्चे दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं। जिस उम्र में बच्चों के हाथों में स्कूल जाने के लिए किताबों से भरा बस्ता होना चाहिए, उस उम्र में वे मजदूरी करने को मजबूर हैं।

ये विषम हालात ही हैं जो इन बच्चों को उम्र से पहले बड़ा बना रहे हैं। कहा जाता है कि बच्चे किसी देश का वर्तमान ही नहीं, बल्कि भविष्य भी होते हैं। जिस देश के बच्चे वर्तमान में जितने महफूज व सुविधा संपन्न होंगे, जाहिर है कि उस देश का भविष्य भी उतना ही उज्ज्वल होगा।

लेकिन, इसके विपरीत भारत में ‘बाल’ का ‘हाल’ किसी से छिपा नहीं है। देश में बाल श्रम अधिनियम (14 वर्ष से कम बच्चों को मजदूरी व जोखिम वाला काम करवाना अपराध है) व बाल मजदूरी कानून होने के बाद भी कोई न कोई ‘छोटू’ आपको किसी न किसी होटल या ढाबे पर बर्तन धोता या टेबल पर चाय परोसता मिल ही जाएगा। गौरतलब है कि भारत में 60 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी में संलग्न हैं। देश की सड़कों पर आए दिन आपको कोई न कोई बच्चा फटे कपड़ों में भीख मांगता, छब्बीस जनवरी व पंद्रह अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर झंडा बेचता और ट्रैफिक सिग्नल पर सलाम करता मिल ही जाएगा।मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1 करोड़ 80 बच्चे सड़कों पर रहते हैं और काम करते हैं।

ऐसे में जिस देश के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। उस देश के विकसित होने का सपना देखना बेमानी ही होगी। हालांकि देश में सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर बच्चे को शिक्षा देने का दावा सरकार करती तो है, लेकिन सरकारी शिक्षा की गुणता न के बराबर है।

कहीं न कहीं अभिभावक जिम्मेदार…

सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है अभिभावकों की, पर दुर्भाग्य से बच्चे अभिभावकों की अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने के माध्यम बन गए हैं। हर अभिभावक अपने बच्चों में अल्बर्ट आइंस्टाइन, राजकपूर, हेमामालिनी या न जाने कौन-कौन खोज रहा है। परिणामस्वरूप बेतहाशा सुविधाएं मुहैया करवाई जा रही हैं, जिनका उपयोग कम, दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। नेट पर जो कुछ उपलब्ध है, वह किसी भी बच्चे को कभी भी परिपक्व बना सकता है।

दूसरा करियर की चूहा-दौड़ बच्चे को बच्चा रहने ही नहीं दे रही है-वे बेचारे पैदा होने के साथ ही आईआईटी, आईआईएम के साए में सांस लेने लगते हैं। मां-बाप ने उनके दिमाग में एक भूत का प्रवेश करा दिया है- जो रात में भी उन्हें डराता रहता है। वे ख्याली पुलाव पकाकर अपने बचपन को कुचलने के लिए आमादा है।

इन सब के बाद यह सोचनीय है कि अब बचपन बचा कहां है? गलियां सुनसान हैं और मैदान जितने भी बचे हैं, वे वीरान हैं। दरअसल गलियों में धमा-चौकड़ी करने वाला बचपन आज इंटरनेट के मकड़जाल में फंसता जा रहा है। यही कारण है कि बच्चों को अपने होमवर्क के बाद जो समय मिल रहा है, उस समय को वे सोशल साइट्स व गेम्स खेलने में गंवा रहे हैं। जिसके कारण उनके आंखों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है तथा वे चिड़चिड़ेपन का शिकार हो रहे हैं।

कहते है कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। चंचलता, मासूमियत, भोलापन, सादगी व सच कहने की गजब शक्ति बच्चों में होती हैं। लेकिन आज उसी निर्भीक बचपन को अत्याधुनिकता की नजर लग गई है। यहां फिर अभिभावक की बच्चों को शीघ्र बड़ा बनाने की तलब ने कहीं न कहीं उनके बचपन को छिनने का प्रयास किया है। अगर यह स्थिति रही तो फिर बचपन और बुढ़ापे में क्या अंतर रह जाएगा? हमें इस बाल दिवस पर इन समस्याओं को लेकर गंभीरतापूर्वक चिंतन-मनन व मंथन करने की महती आवश्यकता है।

Children's Day
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